वो नाजुक सी कली,
वो मिश्री की डली,
वो किस्से सुनाती
वो जब भी आती
दिल से आती
वो सब देखती
सब समझती
दुनिया की
कडवाहट और तल्खी
वो सिर्फ कहती
आँखों से अपनी
चलते हैं दूर कहीं ,
जहां हो बसती
परियां या शहजादी
हो सिर्फ जश्न और बाराती
वो थी हवा बासंती
या थी नन्ही करामाती
3 comments:
बहुत अच्छी प्रस्तुति। हार्दिक शुभकामनाएं!
राजभाषा हिन्दी के प्रचार-प्रसार में आपका योगदान सराहनीय है।
हरीश प्रकाश गुप्त की लघुकथा प्रतिबिम्ब, “मनोज” पर, पढिए!
आपकी पिछली पोस्ट पर मन अटक सा गया। हैरानी होती ये सोचकर कि अब पक्षी भी लोकल होने लगे हमारे बच्चों के लिए। ये आखिर समाज में कौन सी शिक्षा करवट ले रही है, ये कौन सा आदर्श रख रहे हैं हम अपने समाज में। कहां से सीखते हैं बच्चे ये सब। सालों पुरानी एक दूसरी घटना याद आ गई। पक्षी तो पक्षी होते हैं, उनका प्रेम बच्चों को समझाना भी मुश्किल, बड़े होकर कहीं वो ही प्रेम न ढ़ंढने लगें, जो आसानी से नहीं मिलता। जो यथार्थ के धरातल से जरा उंचा रहना पसंद करता है, औऱ फिर धरातल पर आकर चूर-चूर हो जाता है। बड़ी मुश्किल है ।
सुंदर प्रस्तुति....
नवरात्रि की आप को बहुत बहुत शुभकामनाएँ ।जय माता दी ।
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