पाखी छोटी थी ,बहुत छोटी ,एक माँ के लिए तो उनके बच्चे कब बड़े होते हैं ? तो पाखी कितनी बड़ी थी ????,बस इतनी बड़ी की पारंपरिक रूप से स्कूल जाना और नियमबद्ध होकर औपचारिक तरीके से स्कूल के तौर -तरीकों को सीखना शुरू कर ही रही थी , एक दिन जल्दी -जल्दी में उनका tiffin घर में रह गया ,हमे पता लगा जब वो जा चुकी थी , अब हम क्या करते ???????
स्कूल में नियम की पाबंदी की कुछ भी भेजने पर नहीं लिया जाएगा ,सारा दिन इस उथल -पुथल में गुजरा कि पाखी
भूखी होगी ,एक माँ सबसे ज्यादा तब तडपती जब उसके बच्चे भूखे होते हैं ,किसी काम में न मन लगना था और न ही
लगा .समय था कि बीतने का नाम ही नहीं ले रहा था ,कभी कभी आदमी कितना विवश हो जाता है ,किसी तरह वक्त गुजरा और पाखी मैडम हमारी बाहों में ,हम नम आँखों से उसे देखते ।पाखी आज tiffin तो घर में ही रह गया था फिर .................तो क्या हुआ मम्मी तुम तो बेकार में परेशान हो जाती हो ....
तुमने क्या किया ????????
कुछ खाया ??????????
हाँ
कैसे
simple
हमने अपने एक फ्रेंड से कह दिया कि वो मैम को बता दे कि हम आज tiffin नहीं लाये हैं ,
फिर
मैडम ने सारे बच्चों से कहा कि पाखी को पूरी क्लास अपना खाना शेयर कराएगी मम्मी हमारा पेट तो रोज से ज्यादा ही भर गया ,तुम बेकार में इतना परेशान होती है ,मात्र साढे चार साल की लड़की का पहला सामंजस्य उसके
अपने समाज के साथ ............
अद्भुत था ...............
पाखी तब से ही शायद बड़ी और समझदार होने लगी थी .आजके लिए इतना ही
9 comments:
paakhi to badeeeeeeee samajhdaar hai
आदाब
ये पाखी का बेबाकी से टिफ़िन भूल जाने की बात कह देना...
टीचर..और पूरी.क्लास का ये सहयोग..
और पाखी का बिना भेदभाव सबके साथ शेयर करना...
काश...हम सब भी अपनी ’समझदारी’ छोड़कर..
पाखी...और उसकी क्लास के सहपाठियों जैसे मासूम हो जायें..!!
सच है कि माँ के लिए बच्चे कभी बड़े नहीं होते और आपने एक ऐसा सजीव दृश्य बुना है कि उसमे कई सारी खुशबुएं फूट रही है.
माँ का शब्द चित्रण आपने खूब किया है नीलम जी...
सच में माँ कुलबुलाती रहती है जब तक भूखा बच्चा अपना पेट ना भर ले...
हमारे साथ भी होता है...अक्सर ..
और हम घर में माँ ( हमारे बच्चों कि दादी जी ) को समझाना चाहते हैं के आज बच्चे किसी वजह से खाना नहीं ले गए हैं तो कैंटीन से कुछ लेकर खा लेंगे...किसी दोस्त से शेयर कर लेंगे...बच्चों के पास जेबखर्च है....भूखे नहीं रहेंगे....
मगर माँ नहीं मानती...
आपसे पुस्तक मेले में मुलाकात हुई थी उसके बाद आपके बारे मैं बहुत कुछ जाना, ज़्यादातर मनु जी से, आपकी मुस्कान उस दिन भी एक बच्चे सी लगी. जब मुझे और मेरी बहिन को देर हो रही थी पर आप बार बार फ़ोन करके इसी जुगत में लगी थीं कि किताब के कुछ पैसे कम हो जाएँ. आप उस दिन से ही बहुत प्रभावित कर गयीं. आपकी 'पाखी' पढ़ी. और आश्चर्य ये कि बच्चे कितने ज़ल्दी बड़े हो जाते हैं इसी सोच पर मनु जी कि एक पोस्ट याद आ गयी बेइरादा (मटमैले लबादे वाला सेंटा क्लाज़ ). वही मनु जी जो आपके और मेरे बीच बातों का सेतु थे. लगता है कि हम अपने बच्चों का बचपन छीन रहे हैं मगर कहीं कहीं बच्चों को भी तो ज़ल्दी है बड़े होने की, हमारी उम्मीद से भी ज़्यादा ज़ल्दी .
मां की भावनाओं और पाखी की स्वाभाविक बेपरवाही...सुंदर चित्रण.
आपको नववर्ष की हार्दिक शुभकामनायें.
aap sab ka sneh yun hi bana rahe meri pakhi par .......
bahut hi umda... bas emotional ho gaye.
bahut hi badhiya.........aankhen nam ho gayeen.
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