Friday, December 25, 2009

पाखी और उनका क्रिसमस

बचपन से ही कुछ चरित्र हमेशा प्रभावित करते रहे हैं ,उनमे से सेंटा -क्लॉस भी एक प्रमुख चरित्र रहा है दूसरों को खुशी देने वाला किरदार ,एक अलग जिंदादिल इंसान ,हसमुख इंसान हमेशा दूसरों को कुछ देने वाला .अबचेतन मन में वो सब आप के अन्दर ही छुपा होता है ,और मौके -बेमौके आपके बाहर आता रहता है ,पाखी ने भी जब सेंटा को जाना तब हमने उनका परिचय अलग ढंग से करवाया ,बेटा पाखी वो सेंटा का फ़ोन आया था ,पूछ रहा था कि आपको क्या गिफ्ट चाहिए ,पाखी अपने गिफ्ट्स की लिस्ट हमे बताने लगती ,हम उन्हें समझाते ,बेटा आपके सेंटा को कई जगह जाना होता है ,और बहुत सारे बच्चों को गिफ्ट देने होते हैं ,फिर उनके पास इतने पैसे होते हैं ,कि वो सिर्फ एक ही toy एक बच्चे को दे सकते हैं ,इसलिए जो आपको सबसे पहले चाहिए वो खिलौना आप हमे बता दीजिये ,पाखी के मासूम सवाल मम्मी सेंटा हमसे कभी बात क्यूँ नहीं करता ,हमे उससे बात करनी है ,खुद उसे बताना है कि हमे क्या चाहिए हम उनसे कहते नहीं वो आप से अगली बार बात कर लेगा ,पाखी को अपना मनपसंद खिलौना अपनी तकिया के नीचे मिलता ,एक बार दादी के घर पर मम्मी सेंटा को कैसे पता चलेगा कि हम दिल्ली में नहीं हैं ?इस बार हमे सेंटा गिफ्ट कैसे देगा ?आप हमे बता दो हम उन्हें बता देंगे कि इस बार आप दिल्ली में नहीं होगी हम उनका फ़ोन आने पर उन्हें बता देंगे ,और अपना गिफ्ट भी ,बार्बी डॉल की फ़रमाइश पाखी ने रखी इस बार शायद सेंटा का पूरा इम्तिहान लेना था उन्हें ,हम और उनके चाचू रात में छिप के बाजार जाते और उनकी डॉल लाते ,सुबह अचंभित होती हुई ,मम्मी यहाँ का सेंटा तो और भी अच्छा है ,हमे बार्बी देता है ,अगली बार से हम क्रिसमस पर यहीं होंगे ,दादी -बाबा के घर पर .यकीं मानिए इसमें घर के हर सदस्य को उतना ही मजा आता जैसे वो खुद भी एक बच्चे हो गए हो साल गुजरते रहे ,अब पाखी का क्लास में बच्चों से झगडा होने लगा मम्मी ,"शिवानी कह रही थी कि कोई सेंटा -ventaa नहीं होता है ,तेरे मम्मी पापा रखते होंगे वो खिलौना तेरे लिए हमने उनसे कह दिया नहीं जी हमारे घर तो सेंटा ही आता है ,मेरी मम्मी हमसे झूठ नहीं बोलती कभी भी .पाखी समझदार होने लगी है ,या अपना बचपन खोने लगी है ,पाखी को इस बार भी उनका पसंदीदा गिफ्ट मिल गया ,एक दिन पाखी ने कहा की मम्मी वो arrow वाला गेम एक बच्चे के पास है उसके पापा ने तो दुकान से खरीदा है वो 200rs का मिला था मम्मी क्या .........उसके कुछ बोलने के पहले हमने कहा नहीं बेटा वो तो शायद तुम्हारे पापा और बाबा 140rs का ही लाये थे अब पाखी कि आँखे फटी रह गयीं और हम समझ नहीं पाए कि अब क्या ??????????????? मम्मी शिवानी ठीक कहती थी हमने बेकार में ससे झगडा कर लिया ,अब पाखी और उनकी मम्मी दोनों को अफ़सोस है कि क्यों ये राज खुल गया ,और हमे भी एक ............
है कि क्यों पाखी बड़ी हो रही है ,पर यह तो जीवन चक्र है इसे कौन रोक पाया है
( आज के लिए इतना ही )

Thursday, November 26, 2009

पाखी और उनके band-aids

पाखी दरअसल घर में अकेली होने के कारण अपनी माँ का लाड प्यार कुछ ज्यादा ही पाती है ,अब इसे विवाद का विषय न बनाते हुए आगे चलते हैं कि क्या ज्यादा बच्चों को लाड -प्यार नही मिलता ,पाखी को एक बच्चे की आकृतिनुमा एक खिलौना बेहद पसंद था ,उसे हम सब फ्रेंड बुलाते थे ,पाखी के साथ साईकिल की सवारी करता ,पीठ पर चढ़ा रहता ,कुछ ऐसा लगता था कि पाखी को भावनात्मक लगाव उस निर्जीव से बढ़ता जा रहा था ,कहीं बाहर जाते हुए पूछने पर पाखी मैडम का प्यारा सा जवाब होता मम्मी band-aids लेती आना .पहले तो हैरत हुई की इतनी नन्ही सी बच्ची न किसी choclete की इच्छा न किसी खिलौने की फ़रमाइश ,बस कुछ band-aids .होता कुछ ऐसा था की गलती से भी फ्रेंड के कहीं चोट लगते ही तुरंत उसे band-aids की मरहम पट्टी होती ,हम सब उस नन्ही बच्ची में स्वयं जन्मी उस माँ को देखते रहते ,उसके उस जतन को देखते रहते ,समय गुजरता गया ,पाखी पढ़ाई के बढ़ते बोझ को अपने कन्धों पर उठाने की सफल कोशिश करने लगी है ,दुनिया को विस्तृत नजरिये से देखने लगी ,काफ़ी समझदार हो गई है .एक दिन घर की सफाई में वो friend हमारे हाथ में आ गया ,और वो सब बातें भी ,पाखी को कुछ बताने से पहले बोली मम्मी तुमने क्या -क्या कूड़ा जमा किया है ,फेको इसको .वो शायद इस आगे बढती हुई दुनिया के साथ कुछ तारतम्य बिठाने की कोशिश कर रही है और हम उन यादों को यहाँ महफूज करने की कोशिश कर रहें हैं .पाखी के पास आज भी band-aids होते हैं .पर किसी फ्रेंड के लिए नही ,सिर्फ़ अपने और अपनी मम्मी के लिए ही ।
पाखी अब बड़ी हो रही है ,और समझदार भी ,(आज के लिए बस इतना ही )

Monday, November 16, 2009

वो क्यों फोड़ते हैं बम? पाखी नहीं जानती

वो क्यों फोड़ते हैं बम? पाखी नहीं जानती
एक छोटी बच्ची ने
पूछाअपनी माँ से
ये आतंकवाद क्या है?
वो क्यों फोड़ते हैं बम?
क्यों मारते हैं?
मेरी सहेली और उसके पापा को
बेटी को समझा न सकी -
उसकी माँ कुछ भीक्योंकि
उस बालमन की दुनिया में
नही है नफरत, ईर्ष्या और द्वेष कोई
और न ही है कोई शब्दउसके
शब्दकोष मेंआतंकवाद जैसा कोई ..............................................

(यह भाव मन मेंउस समय आए जब दिल्ली में बम ब्लास्ट हो रहे थे और पाखी कुछ ऐसी ही मन: स्थिति से गुजर रही थी )

Friday, November 13, 2009

दिवाली की रात

दिवाली की रात

दिवाली की वो रात ,
पूरी रौशनी की वो रात ,
नए पकवानों की रात ,
आतिशबाजियों की वो रात ,
सारा उत्साह ,
सिर्फ़ मेरी पाखी के साथ ,
नित नई परिपक्व बातें करती ,
रंगोली बनाती ,
अचानक पूछ बैठती ,
माँ ,
लक्ष्मी जी के तो सिर्फ़ दो ही पैर हैं ,
वो कितनों के घर जायेंगी आज ????????

Tuesday, November 3, 2009

कोई लौटा दे मेरे बीते हुए..........................

वो पंडित जी के आते ही सभी बच्चों का खेल रुक सा जाता था ,पंडित जी के थैले में एक बांसुरी और रंग -बिरंगी चित्र -कथाएं .खेल वहीँ का वहीँ रुक जाता जो चोर वो वहीँ वैसे ही ठहर जाता ,पंडित जी जैसे ही पीछे वाले ब्लाक में अखबार डालने जाते ,हम सब उनके थैले में से सारी किताबें गिन कर ईमानदारी से एक दूसरे को बाँट देते , और फिर शुरू हो जाता कॉमिक्स पढने का वो सिलसिला की शायद ,सबसे कम समय में सबसे ज्यादा पढने की रेस ,और सबके ऊपर बढती जाती हमारी खीज एक आधे लोगों से तो यह कहकर कॉमिक्स की जुगाड़ की जाती की तुम बहुत धीरे पढ़ते हो हमे दो हम तम्हें बाद में सारी कहानी सुना देंगे ,खींचतान चलती रहती ,सबसे ज्यादा पढने का और जल्दी पढने का हमारे साथ किसी का कोई मुकाबला तो था ही नही ,सो हम तो ठहरे अव्वल दर्जे के शैतान पर......... एक संजीदा लड़की चाहती थी कभी फुर्सत के लम्हों में पंडित जी से बांसुरी सुनना मगर वो हो न सका ,पूरी भीड़ जो चाहती थी ,हम भी उसी का नेतृत्व करते .दिन गुजरते रहे एक दिन पापा का ट्रान्सफर हम सब बोरिया बिस्तर बांधकर वापस लखनऊ और वो आज भी जेहन में है पंडित जी की बांसुरी जो कभी हम सुन न पाये ,काश कोई लौटा दे मेरे .........................................

Sunday, October 25, 2009

साफ सुथरी जिन्दगी की सड़क हो जो

जब बेटी माँ से अपना कद नापे ,
क्यों न वो शाख सी ख़ुद झुक जाए ,
कैसे बढे हौसला बेटी का
कैसे टूटे तारा किसी निराशा का
माँ तो माँ है माँ ही जाने
क़दम -क़दम पर हाथ बढाए
जब बेटी को चोट जो आए ,
माँ ही मन पे जख्म वो पाये
माँ तो माँ है माँ ही जाने
कैसे दिखाए उसे वो रास्ता ,
जो कोई दलदल न हो ,
होता हो गर तो ,
जिन्दगी की एक साफ सुथरी सड़क होती हो!!!!!!!!!!!!!!

पाखी वो देखो दूल्हा

बात उन दिनों की है ,पाखी ने कुछ अपने आस -पास की चीजों को जानना और समझना शुरू ही किया था ,नए -नए शब्दों से परिचित हो रही थी .पाखीहमारे साथ एक शादी में जा रही थी ,परिवार के मित्रों के कुछ बच्चे भी हमारे साथ थे .पाखी बहुत खुश थी ,उन बच्चों के साथ और हम खुश थे कि वो खुश है ,रास्ते में एक बारात जा रही थी,शादियों के मौसम में सड़कों से बारात का गुजरना मतलब सड़क थोडी देर के लिए अपनी ही मिलकियत मान लिया जाना होता है .दूल्हा सजा सवांरा ,(सजाते तो बकरों को भी बलि देने से पहले हैं )देखते ही उनमे से एक बच्चा

उत्साह से जोर से चीखा ,पाखी वो देखो दूल्हा ,पाखी को शायद इस तरह से सड़क पर हंगामा पहली बार देखने को मिल रहा था ,दोस्तों के साथ में होने से उनका उत्साह भी देखता ही बनता था .पाखी बड़े कौतुहल से उस जंतु को छोड़कर जो घोडे पे बैठा था ,सिर्फ़ घोडे को ही देखती रही ,पाखी कि निगाहें घोडे पर और हमारी सिर्फ और सिर्फ पाखी पर .बारात पीछे रह गई हम लोग आगे निकल गए .मेरी जिज्ञासा बेचैन थी कि कहीं पाखी ने आज एक ग़लत शब्द तो नही सीख लिया ,हमने अपनी बिटिया रानी से पूछा ,बेटा आपने दूल्हा देख लिया ?पाखी ने सहमति में सर हिलाते हुए कहा कि हाँ ,हमने पूछा तो फिर किसे कहते हैं दूल्हा ,जरा हमे तो बताओ ।

पाखी ने बड़ी मासूमियत से कहा horse को कहते है न मम्मी दूल्हा !!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!

Monday, January 12, 2009

मेरे ब-गैर

बालिका वधू देखती ,
अन्याय के प्रति जागरूक होती ,
नित नए प्रश्न पूछती,
अवाक ,हैरान ,ठगी सी खड़ी मै
देखती उसे प्रति पल बड़ी होते ,
मेरी हर इच्छा का ध्यान रखते हुए ,
अपनी बातों को मानने को बाध्य करती ,
अपनी राह को प्रशस्त करती हुई ,भी
अभी इतनी बड़ी तो नही हुई है वो
जो देख पाये ,अपने आपको ,
मेरे ब-गैर ,मेरी छाया के ब-गैर